ज्ञानकी सप्त भूमिकाएँ--
योगविद्या तत्वका सत्य ज्ञान प्राप्त करनेके लिये साधकको श्रीसद्गुरूका आश्रय लेना अनिवार्य है, क्योंकि वेदान्तशास्त्रके सिद्धान्तके सत्यरूपमें केवल सद्गुरु ही समझा सकते हैं, उनकी सहायताके बिना केवल मिथ्या भ्रान्तिमें पड़कर मनुष्य अवनतिको प्राप्त हो सकता है। इसी कारण दीर्घदर्शी तत्वज्ञानसम्पन्न शास्त्रकारोंने भी आज्ञा दी है।
तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत्।
अर्थात् शम दमादिसम्पन्न गुरुके समीप जाना चाहिये। शास्त्रका ज्ञान होनेपर भी ब्रह्मज्ञानकी मनमानी खोज नहीं करनी चाहिये। लौकिक विद्याकी सिद्धीके लिये भी जब गुरुकी आवस्यकता पड़ती है, तब ब्रह्मविद्याकी सिद्धीके लिये तो सद्गुरुकी निरतिशय आवस्यकता है, यह सुस्पष्ट है। क्योंकि जिसको जिस वस्तुका अधिकार प्राप्त होता है, उसीके लिये वह प्राप्त हुआ पदार्थ हितकारक होता है। अनधिकारी वेदान्तके मार्मिक रहस्यपूर्ण हेतुको नहीं समझ सकता, इसलिये ब्रह्मज्ञानकी प्राप्तिके लिये सद्गुरुकी आवस्यकता हमारे सारे शास्त्र मुक्तकण्ठसे स्वीकार करते हैं। ज्ञानकी सप्त भूमिकाएँ इस प्रकार है।
(1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) तनुमानसा (4) सत्वापत्ति (5) असंसक्ति (6) पदार्थभावनी और (7) तुर्यगा। इनका सक्षिप्त विवरण इस प्रकार है।
शुभेच्छा--नित्यानित्यवस्तुविवेक वैराग्यादिके द्वारा सिद्ध हुई फलमें पर्यवसित होनेवाली मोक्षकी इच्छा अर्थात् विविदिषा, मुमुक्षुता, मोक्षके लिये आतुर होना हि शुभेच्छा है।
विचारणा-- श्री सद्गुरुके समीप वेदान्तवाक्यके श्रवण मनन करनेवाली जो अन्त: करणकी वृत्ति है, वह सुविचारणा है।
तनुमानसा--- निदिध्यासन (ध्यन और उपासनाके अभ्यास) से मानसिक एकाग्रता प्राप्त होती है, उसके द्वारा सूक्ष्म वस्तुके ग्रहण करने की सामर्थ्य प्राप्त होती है उसे तनुमानसा कहते हैं।
सत्वापत्ति--- संशयविपर्ययरहित ब्रह्म और आत्माके तादात्म्य अर्थात् ब्रह्मस्वरूपैकात्मत्वका अपरोक्ष अनुभव ही सत्वापत्ति नामकी चतुर्थ भूमिका है। ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या का वास्तविक अनुभव होना।
असंसक्ति--- सविकल्प समाधिके अभ्यासके द्वारा मानसिक वृत्तियोंके निरोधसे जो निर्विकल्प समाधिकी अवस्था होती है, वही असंसक्ति कहलाती है।इसे सुषुप्तिभूमिका भी कहते हैं।
पदार्थभावनीष--- असंसक्ति नामक भूमिका के परिपाकसे प्राप्त पटुताके कारण दीर्घकालतक प्रपंचके स्फूरणका अभाव पदार्थभावनी भुमिका कहलाती है। इस भूमिकाको गाढ सुषुप्तिके नामसे पुकारते हैं।
तुरीय-तुर्यगा--- ब्रह्मचिन्तनमें निमग्न इस महापुरुषको किसी भी समय किसी भी अन्य पदार्थकी भावनाका न होना, यही ज्ञानकी सप्तम भूमिका तुरीया कहलाती है। इस स्थितिको प्राप्त महात्मा स्वेच्छासे या परेच्छापूर्वक व्युत्थानकै प्राप्त ही नहीं होता, केवर एक हि स्थिति ब्रह्मभाव में विचरण करता है। ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति।
अत: ब्रह्मको जाननेवालोंको ज्ञानी, तत्वज्ञानी, आत्मज्ञानी की संज्ञासे शास्त्रोंने स्थान स्थान पर उल्लेख किया है।
इस प्रकार सत्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थभावनी और तुरीया इन चार भूमिकाओंमें स्थित महात्मा क्रमश: ब्रह्मविद्, ब्रह्मविद्वर, ब्रह्मविद्वरीयान और ब्रह्मविद्वरिष्ठ कहलाता है।
जय श्री कृष्ण ऊँ नमो नारायण।
योगविद्या तत्वका सत्य ज्ञान प्राप्त करनेके लिये साधकको श्रीसद्गुरूका आश्रय लेना अनिवार्य है, क्योंकि वेदान्तशास्त्रके सिद्धान्तके सत्यरूपमें केवल सद्गुरु ही समझा सकते हैं, उनकी सहायताके बिना केवल मिथ्या भ्रान्तिमें पड़कर मनुष्य अवनतिको प्राप्त हो सकता है। इसी कारण दीर्घदर्शी तत्वज्ञानसम्पन्न शास्त्रकारोंने भी आज्ञा दी है।
तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत्।
अर्थात् शम दमादिसम्पन्न गुरुके समीप जाना चाहिये। शास्त्रका ज्ञान होनेपर भी ब्रह्मज्ञानकी मनमानी खोज नहीं करनी चाहिये। लौकिक विद्याकी सिद्धीके लिये भी जब गुरुकी आवस्यकता पड़ती है, तब ब्रह्मविद्याकी सिद्धीके लिये तो सद्गुरुकी निरतिशय आवस्यकता है, यह सुस्पष्ट है। क्योंकि जिसको जिस वस्तुका अधिकार प्राप्त होता है, उसीके लिये वह प्राप्त हुआ पदार्थ हितकारक होता है। अनधिकारी वेदान्तके मार्मिक रहस्यपूर्ण हेतुको नहीं समझ सकता, इसलिये ब्रह्मज्ञानकी प्राप्तिके लिये सद्गुरुकी आवस्यकता हमारे सारे शास्त्र मुक्तकण्ठसे स्वीकार करते हैं। ज्ञानकी सप्त भूमिकाएँ इस प्रकार है।
(1) शुभेच्छा (2) विचारणा (3) तनुमानसा (4) सत्वापत्ति (5) असंसक्ति (6) पदार्थभावनी और (7) तुर्यगा। इनका सक्षिप्त विवरण इस प्रकार है।
शुभेच्छा--नित्यानित्यवस्तुविवेक वैराग्यादिके द्वारा सिद्ध हुई फलमें पर्यवसित होनेवाली मोक्षकी इच्छा अर्थात् विविदिषा, मुमुक्षुता, मोक्षके लिये आतुर होना हि शुभेच्छा है।
विचारणा-- श्री सद्गुरुके समीप वेदान्तवाक्यके श्रवण मनन करनेवाली जो अन्त: करणकी वृत्ति है, वह सुविचारणा है।
तनुमानसा--- निदिध्यासन (ध्यन और उपासनाके अभ्यास) से मानसिक एकाग्रता प्राप्त होती है, उसके द्वारा सूक्ष्म वस्तुके ग्रहण करने की सामर्थ्य प्राप्त होती है उसे तनुमानसा कहते हैं।
सत्वापत्ति--- संशयविपर्ययरहित ब्रह्म और आत्माके तादात्म्य अर्थात् ब्रह्मस्वरूपैकात्मत्वका अपरोक्ष अनुभव ही सत्वापत्ति नामकी चतुर्थ भूमिका है। ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या का वास्तविक अनुभव होना।
असंसक्ति--- सविकल्प समाधिके अभ्यासके द्वारा मानसिक वृत्तियोंके निरोधसे जो निर्विकल्प समाधिकी अवस्था होती है, वही असंसक्ति कहलाती है।इसे सुषुप्तिभूमिका भी कहते हैं।
पदार्थभावनीष--- असंसक्ति नामक भूमिका के परिपाकसे प्राप्त पटुताके कारण दीर्घकालतक प्रपंचके स्फूरणका अभाव पदार्थभावनी भुमिका कहलाती है। इस भूमिकाको गाढ सुषुप्तिके नामसे पुकारते हैं।
तुरीय-तुर्यगा--- ब्रह्मचिन्तनमें निमग्न इस महापुरुषको किसी भी समय किसी भी अन्य पदार्थकी भावनाका न होना, यही ज्ञानकी सप्तम भूमिका तुरीया कहलाती है। इस स्थितिको प्राप्त महात्मा स्वेच्छासे या परेच्छापूर्वक व्युत्थानकै प्राप्त ही नहीं होता, केवर एक हि स्थिति ब्रह्मभाव में विचरण करता है। ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति।
अत: ब्रह्मको जाननेवालोंको ज्ञानी, तत्वज्ञानी, आत्मज्ञानी की संज्ञासे शास्त्रोंने स्थान स्थान पर उल्लेख किया है।
इस प्रकार सत्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थभावनी और तुरीया इन चार भूमिकाओंमें स्थित महात्मा क्रमश: ब्रह्मविद्, ब्रह्मविद्वर, ब्रह्मविद्वरीयान और ब्रह्मविद्वरिष्ठ कहलाता है।
जय श्री कृष्ण ऊँ नमो नारायण।
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